मेघदूतम्
मेघदूत
यह संस्कृत जगत के सर्वश्रेष्ठ गीतिकाव्यों मैं सर्वप्रथम गिना जाता है। कालिदास की परिपक्व कला, कल्पना की ऊंची उड़ान परिष्कृत माधुरी-भरी भाषा विषय की धारावाहिक गीति, एवम गीति की एकतानता का यह अद्भुत संगम है, जिसके टक्कर का गीतिकाव्य विश्व भर में दूसरा कोई नहीं है।
मेघदूत में कुबेर के शाप के कारण अपने प्रिया से विमुक्त हुँये यक्ष के व्यथित हृदय की वेदना- भरी कहानी है, हृदय को द्रवित कर देने वाली विप्रलंभ ! की एक करुण-गीतिका है। यह दो भागों में विभक्त है―
पूर्वमेघ और उत्तरमेघ ।
पूर्वमेघ में यक्ष के रामगिरी में निवास करने से लेकर अलकापुरी तक का वर्णन है।
पूर्वमेघ
प्रिया के प्रति अंध-प्रेम होने के कारण अपने कर्तव्य से प्रमाद करने वाला एक यक्ष यक्षेश्वर कुबेर द्वारा शाप के रूप में वर्ष भर के लिए अलकापुरी जो कि उसकी अपनी नगरी है वहाँ से निकाल दिया जाता है। यक्ष विंध्याचल में रामगिरी पर अपना आश्रम बनाकर वहीं रहने लगता है।
एक दिन उसे आषाढ़ मास के आरंभ में अंकित रामगिरी पर्वत की चोटी पर उमड़ा हुआ बादल दिखाई दिया। तत्काल उस बादल को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा। मेघ को देखकर सूखी मनुष्य का भी चित्त डगमगा जाता है, फिर उसका तो कहना है क्या जिसका हृदय अपने प्रिय को गले से लगाना चाहता है परन्तु दूर पड़ा हुआ है। यक्ष ने फिर मिलने की आशा में वियोग के दिनों को गिनती हुई अपने प्रिय को मेघ द्वारा कुशल समाचार पहुंचाना चाहा, अतएव पुष्प आदि से मेघ का स्वागत करके प्रार्थना करता है; हे भाई! दुखियों के एकमात्र तुम्हीं सहारे हो तुम्हें उत्तर दिशा की ओर जाना है वहाँ अलकापुरी में जाकर एक छोटा सा संदेश मेरी प्रिया को पहुंचा देना। देखो, कैसी मंद― मंद पवन चल रही है चातक पक्षी तुम्हारी बाईं ओर होकर बोल रहा है, बगुलों की पंक्तियाँ आकाश में उड़ रही है और साथ ही बॉम्बी से यह इंद्रधनुष भी प्रकट हो गया है। ये सब तुम्हारी यात्रा के लिए शुभ संकेत है किंतु मैं संदेश कहूं और तुम प्रस्थान करो इससे पहले मैं तुम्हें अलकापुरी जाने की दिशा को बता देना चाहता हूँ ― ग्रामीण युवतियों की भोली-भाली आनंद-भरी आँखों से पीये जाते हुए तुम माल प्रदेश (मालवा) को पार करके आम्रकूट (अमरकंटक) पहुंचना। वहाँ से कुछ परे तुम्हें विंध्याचल की तलहटी में विभिन्न धाराएं बनाकर बहती हुई तुम्हें रेवा नदी (नर्मदा) मिलेंगी। वहाँ से तुम दशार्ण देश को जाना, वहाँ पर जामुन के वन पके हुए फलों से काले बने होंगे। उसकी राजधानी विदिशा में प्रवेश करके तुम प्रेमिका ओके भ्रूभंग-युक्त मुख की तरह चंचल तरंगों वाली वेत्रवती का जल पीना और नीचै नाम वाले पर्वत पर विश्राम लेना। वहाँ से चलकर यद्यपि तुम्हारे लिए मार्ग कुछ टेढ़ा पड़ेगा, तो भी उज्जैनी जाय बिना ना रहना, क्योंकि वह ऐसी सुंदर नगरी है मानो स्वर्ग की एक टुकड़ी भूमि पर लाई गई हो। यदि वहाँ अटारियों में रहने वाली ललनाओं की बिजली की चमक से डरी हुई एवम चंचल चितवनों का स्वाद नहीं लोगे, तो तुम्हारी आंखें एक महान लाभ से वंचित ही रहेंगी। अतः निर्विन्ध्या नदी को पार करके तुम अवंतिका देश में प्रवेश होना और फिर तुम उज्जैनी नगरी पहुँच जाओगे। वहाँ बाजार में बेचने के लिए सजाकर रखे हुए हीरे, पन्ने, मोती आदि के ढेर के ढेर देखकर तुम्हें ऐसा प्रतीत होगा मानो समुद्र में अब पानी के अतिरिक्त और कुछ रहा ही नहीं। पास ही में महाकाल शिव का मंदिर है। वहाँ तुम शिव जी की सायंकालीन पूजा के समय जाना जिससे की वहाँ गर्जना करके तुम नगाड़े का काम कर सको। वह रात उज्जैनी में बिताकर प्रातः फिर चल पड़ना और गंभीरा नदी को पार करके देवगिरी को जाना। वहाँ कार्तिकेय रहते है। पुष्प-मेघ बनकर उन पर फूलों की वर्षा करना। उसके बाद तुम चर्मण्यवती चंबल नदी प्राप्त करोगे। उससे परे दसपुर आएगा, जहाँ की स्त्रियां अपने सौंदर्य के लिए प्रख्यात है।
वहाँ से तुम कुरुक्षेत्र पहुचोगे, जहाँ अर्जुन ने क्षत्रियों के ऊपर इस तरह वाण बरसाए थे जिस तरह तुम कमलों पर बौछार बरसाते हो। वहाँ सरस्वती का जल पीना और आगे कनखल चले जाना, जहाँ परम पावनी गंगा मैदान में बहने के लिए हिमालय से उतरती हैं। उसका भी जल पीकर जब तुम आगे बढोगे, तो तुम हिमालय पहुँच जाओगे। यहाँ देवदारु वृक्षों के घने वन मिलेंगे कहीं पर कस्तूरी मृगों की सुगन्धी आती रहेंगी और कही शरभ तुम्हारी गर्जना सुनकर तुम से टक्कर लेने के लिए आकाश में उछलेंगे। वहाँ तुम्हें मीठे स्वर में गाती हुई किन्नरियाँ भी दिखाई देंगी। वायु से भरे हुए बांस अपनी बांसुरी बजा रहे होंगे, तो तुम भी गरजकर मृदंग खास और निकालना। इस तरह हिमालय को अनेक प्रकार से देखते हुए तुम उसकी किसी चोटी पर विश्राम के लिए बैठ जाना। फिर वहाँ से उत्तर की ओर चल कर कौंच-रंध्र से तुम कैलाश पहुँच जाओगे, जहाँ अंकित शिवजी निवास करते हैं। उस पर्वत की गोद में अलकापुरी बसी हुई है जहा पर तुम उसके ऊंचे ऊंचे प्रसाद से उसको तत्काल पहचान लोगे।
उत्तरमेघ
भय्या मेघ, अलकापुरी के प्रसादों का क्या वर्णन करू। उन्हें तुम अपनी तरह आकाश से बातें करते पाओगे। उनके फर्श मणियों के हैं और दीवारें विविध चित्रों से सज्जित एवम रत्नों से जटित है। वहाँ ऐसी-ऐसी सुंदरिया है, जो तुमने कभी देखी ही नहीं होंगी। वृक्ष बारह मास फ़लते रहते है। प्रत्येक सांझ नित्यप्रति चांदनी से उज्ज्वल हुई रहती है। वहाँ आंसू गिरते है, तो आनंद में ही, ताप होता है, तो काम का ही और कलह होता है, तू प्रेम का ही। यौवन है एकमात्र अवस्था है, बुढ़ापा नहीं है। ग्रहों में सब प्रकार की विभूतियां और सुख सामग्री नित्य उपस्थित रहती है। वसन-भूषण आदि जिस वस्तु की आवश्यकता पड़ती है, कल्पवृक्ष तत्काल पूरी कर देता है। अभिप्राय यह है कि वहाँ सर्वत्र प्रेम और आनंद का साम्राज्य है। इसी नगरी में कुबेर के भवन से उत्तर की ओर मेरा गृह है, जिसका विविध-रत्न-जटित बहिर्द्वार तुम्हें दूर से ही इंद्रधनुष सा चमकता हुआ दृष्टिगोचर होगा।उसके भीतर एक मंदार वृक्ष है, जिसे मेरी प्रिया ने पाल रखा है। पास ही एक बावड़ी है, जिसकी सीढ़ियां मरकत-मणियों से निर्मित है और अंकित जिसके एक किनारे पर तुम्हारे जैसा ही एक कीड़ा-पर्वत है। उद्यान में एक रक्तशोक और एक बकुल वृक्ष है। इन सब चिन्हों तथा द्वार पर चित्रित ‘शंख’ और ‘पद्म’ से मेरी अनुपस्थिति के कारण सुने-से पड़े हुए मेरे घर को तत्काल पहिचान लोगे। भीतर तुम्हे युवतियों में ब्रह्मा की आदि सृष्टि-सी एक सुन्दरी दिखलाई देगी, जो शरीर से दुबली, कमर से पतली, और स्तनों से झुकी हुई होगी और उसकी आँखे तो डरी हुई हिरनियों की तरह चंचल होंगी, किंतु चाल नितम्ब-भार के कारण अलसाई-सी होगी, उसे मेरी पत्नी समझना। वह चकवाकी की तरह अकेली है, क्योंकि उसका सहचर मैं दूर पड़ा हुआ हूँ। मेरे वियोग के दुख में बेचारी तुषार-पात से मारी हुई पद्मिनी की तरह कुछ की कुछ हो गई होगी। उसे तुम कभी तो मेरा चित्र बनाने का विफल प्रयत्न करती हुई पाओगे और कभी गोद में वीणा रखकर मेरे नाम की गीतिका द्वारा व्यर्थ मनोविनोद में लगी हुई देखोगे। कभी वह मैना से बात करती होगी ― “वो मीठा बोलने वाली, क्या तुझे भी अपने स्वामी की याद आती है? उनके लिए तू बड़ी प्यारी थी।” कभी वह वियोग के शेष महीनों को देहली पर रखे हुए पुष्पों से गिनती होगी। तुम पहले तो ―मैं तुम्हारे पति का मित्र हूँ ―इस प्रकार अपना परिचय देना और तदन्तर मेरा यह संदेश कहना ― “प्रिय, में प्रियंगु लताओं में तुम्हारे शरीर की, भय-भीति हुई मृगियों की दृष्टि में तुम्हारे चिंतवन की, चन्द्रमा मैं तुम्हारे मुख दर्शन की, मयूर के पुच्छों में तुम्हारे केश पाश की और नदियों की तरंगों में तुम्हारे भ्रू-विलास की कल्पना करता रहता हूँ, किंतु बड़ा दुख है कि उनमें से किसी में भी तुम्हारे अंगों की समता नहीं मिलतीं। देखो हृदय में कितनी ही आशाएं रखे हुए मैं भी तो अकेला इन वियोग की घड़ियों को किसी तरह काट रहा हूँ, अतः ओ सजनि, तुम निराश न होना। भला सोचो तो सही कि निरंतर सुख ही सुख या दुखी दुख क्या कभी किसी को मिला है? भाग्य का चक्र कभी तो ऊपर चला जाता है और कभी नीचे आ जाता है। अब मेरे शाप को समाप्त होने में केवल अंकित चार महीने शेष हैं, आंख मीचकर सह लो और फिर तुम और हम दोनों शरद की चांदनी में वियोग के कारण बड़ी हुई उन-उन इच्छाओं को अच्छी तरह पूरी कर लेंगे।
यह संदेश देकर अंत में यक्ष मेघ से बोला― “भैया, यह मेरा कार्य-चाहे मुझ दुखी के प्रति दया के नाते बोलो―किसी तरह कर करा के बाद को जहाँ तुम्हरी इच्छा हो चले जाना। ईश्वर करे तुम्हरी मेरी तरह बिजली से कभी वियोग न हो―यह मेरी तुम्हारे लिए कामना है। अच्छा, जाओ, नमस्कार ।”
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Bahut hi sundar aapne likha hai 😊
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteBahut sunder
ReplyDeleteWaah
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