गीता की योग संबंधी विचारधारा

गीता की योग संबंधी विचारधारा वास्तविक अर्थों में श्रीमद्भगवद्गीता को योग शास्त्र की संज्ञा दी गई है। इसके प्रत्येक अध्याय की ‘पुष्पिका’ में ब्रह्मविद्यां योगशास्त्रे ऐसा कहा गया है। अतः गीता का योग संबंधी विचार बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। योग शब्द सामान्यतः संबंध वाचक है। अर्थात् आत्मा और परमात्मा के समन्वित संबंध का सिद्धांत ही योग कहलाता है। इस संबंध को स्थापित करने के तीन साधन बताए गए हैं। जिन्हें कर्म, भक्ति, ज्ञान के नाम से जाना जाता है। ध्यातव्य है कि इन तीनों का पृथक पृथक वर्णन तो अनेक शास्त्रों में प्राप्त होता है, परंत इन तीनों के समन्वय का गौरव एकमात्र गीता को ही प्राप्त है। गीता में कर्मयोग कर्मयोग वह योग है जिसमें कर्म की ही प्रधानता होती है। इसके मुख्य पक्षपाती लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी है। ज्ञातव्य है कि सकाम और निष्काम के भेद से कर्म दो प्रकार के होते हैं।― सकामकर्म:– सकामकर्...